महर्षि दयानन्द का जन्म सन् १८२४ में गुजरात काठियावाड़ प्रान्त के टंकारा ग्राम में हुआ। इनका असली नाम मूलशंकर था। ये बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि थे। एक शिवरात्रि को मूलशंकर भक्तिभाव से जागते रहे, पर शिव पर एक चूहे को आते-जाते देखकर इनके मन में मूर्ति-पूजन के विरुद्ध भाव उत्पन्न हो गए। fig. महर्षि दयानन्द पर निबंधएक दिन ये चुपचाप अकेले घर से निकल पड़े। कई वर्षों इधर-उधर विद्या पढ़ते रहे। इन्होंने योगाभ्यास भी किया। बारा में स्वामी विरजानन्द से संस्कृत का और वेदों का गम्भीर अध्ययन किया। फिर ये संन्यासी हो गए और दयानन्द सरस्वती के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुए।
विद्या पूरी करके स्वामी दयानन्द हरिद्वार में गंगा-पार निधड़क होकर विचरने लगे। तत्पश्चात् इन्होंने हिमालय की पैदल यात्रा की। घोर शीत, हिंसक पशु, अन्य भी अनेक कष्टों की परवाह न करके जनता को प्रभावित करने का रहस्य इन्होंने जान लिया। वहाँ से लौटकर जब ये मैदान में आये तो इन्होंने प्रचार का दुबारा प्रारम्भ किया। तब देश के एक कोने से दुसरे कोने तक एक तहलका-सा मच गया। इन्होंने सैकड़ों व्याख्यान दिये, शास्त्रार्थ किये।
महर्षि दयानन्द ने सबसे पहले बम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। तत्पश्चात् लाहौर आदि अन्य स्थानों पर भी आर्यसमाज की स्थापना हुई। इनके व्याख्यानों में खण्डन की अधिकता होती थी, अतः कई बार कुछ लोगों ने इन पर पत्थर फेंके, परन्तु स्वामीजी कभी विचलित न हुए। कई लोगों ने इनको धमकियाँ दीं, कइयों ने तलवार निकाली। कई बार इनको विष दिया गया, परन्तु बदले में कभी किसी के साथ इन्होंने बुराई नहीं की। ब्रह्मचर्य, तप और योगाभ्यास का ही प्रभाव था कि ये सब आपत्तियों से बचते गए।
स्वामीजी ने कई उत्तमोत्तम पुस्तकें लिखीं जिनमें से सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्यभिविनय, व्यवहारभानु, वेदांगप्रकाश आदि मुख्य हैं। 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' भी इन्होंने लिखी। इन सब पुस्तकों में से सत्यार्थप्रकाश का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। स्वामी दयानन्द जी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। रसोइए द्वारा भोजन में विष दिये जाने से इनका देहान्त हो गया।
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